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Saturday, June 20, 2009









कहता है, प्यारे बच्चों,
मैं अपनी बात बताता हूँ,
अपना प्रयोग अब घटता देख,
मैं बहुत सकुचाता हूँ।
पर मुझे बहुत खुशी होती,
शब्दों के बीच में आकर,
अपने मित्र-संबंधियों का,
थोड़ा संसर्ग भी पाकर।
वाण, रण जैसे शब्द,
जो संस्कृत में आए हैं,
बिना किसी बदलाव के,
वे मेरा साथ निभाए हैं।
पर मेरी दुरुहता को,
कुछ हिंदी भाषी पचा न पाए हैं,
इसलिए रन, बान जैसे शब्द भी,
अत्यधिक प्रयोग में आए हैं।।
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-प्रभाकर पाण्डेय
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2 comments:

समयचक्र said...

बहुत सुन्दर रचना बधाई .

श्यामल सुमन said...

बिल्कुल अलग सोच की रचना पसन्द आयी। वाह।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
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shyamalsuman@gmail.com

 
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